हैप्पीनेस करिकुलम को डिजाइन करने में सर्वाधिक प्रेरणा मध्यस्थ दर्शन आधारित जीवन विद्या शिविर से मिली है जिसमें बहुत क्रिटिकल तरीके से शिक्षा और जीवन से जुड़े तमाम पहलुओं पर बेहद वैज्ञानिक आधार पर, चर्चा होती है.
यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी होगा कि हैप्पीनेस की क्लास कोई नैतिक शिक्षा की क्लास नहीं है। न ही यह कुछ ऐसी गतिविधियों की क्लास है जो बच्चों को अच्छी लगती हो और जिनके जरिए बच्चे कुछ देर हंसी खुशी रह सके। न ही इसमें किसी मंत्र प्रथा या आराधना को स्थान दिया गया है। यह बेहद वैज्ञानिक तरीके से तैयार किया गया पाठ्यक्रम है। जिसे दिल्ली सरकार के करीब 40 अध्यापकों की टीम ने देश और दुनिया की शिक्षण पद्धतियों का अध्ययन करके तैयार किया है। इसमें विशेष रूप से मध्यस्थ दर्शन आधारित अस्तित्ववादी शिक्षण प्रणाली का अध्ययन किया गया। यह भी अध्ययन किया गया कि अभी तक नैतिक शिक्षा द्वारा कुछ अच्छे एवं सिखाने को शिक्षण पाठ्यक्रम में शामिल करने के बावजूद हम यह सुनिश्चित क्यों नहीं कर पाएं हैं कि जो व्यक्ति पढ़-लिख जाए वह खुशहाल जिंदगी जी सके। अभी तक के हमारे प्रयास कहां असफल हुए और तब यह पाठ्यक्रम तैयार किया गया। इसमें देश में सकारात्मक शिक्षा पर अलग-अलग प्रयोग कर रहे विभिन्न विशेषज्ञों और संसाधनों की मदद ली गई। हैप्पीनेस करिकुलम का आधार भारतीय चिंतन एवं शिक्षण के अनुभवों से लिया गया है जिसमें इमोशनल साइंस को जोड़ दिया गया है। हैप्पीनेस की क्लास को तीन प्रमुख हिस्सों में समझा जा सकता है - पहला है माइंडफुलनेस मेडिटेशन, दूसरा है कुछ प्रेरक कहानियों को आधार बनाकर बच्चों का ध्यान उनकी अपनी सोच व्यापारियों की ओर आकर्षित करना और तीसरा है गतिविधि आधारित चर्चा जिसमें कोशिश की जाती है कि बच्चे अपने मन के अंदर उठने वाले विचारों और प्रतिक्रियाओं का वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन कर सकें। इनको संक्षेप में एक-एक करके समझना जरूरी है.
1. माइंडफुल मेडिटेशन
जैसा कि मैंने बताया है कि हैप्पीनेस करिकुलम का विस्तृत खाका मेरे मन में विपस्सना शिविर के दौरान ही तैयार हुआ, संभवतः इसीलिए इसका सबसे अहम तत्व है- मेडिटेशन : माइंडफुल मेडिटेशन। माइंडफुल मेडिटेशन में पूरा जोर इस बात पर दिया जाता है कि बच्चे ध्यान देने की कला में पारंगत हो. इसके तहत रोजाना हैप्पीनेस की क्लास के पहले 5 मिनट और अंतिम 2 मिनट आंख बंद करके ध्यान देने का अभ्यास होता है. साक्षी सप्ताह में 1 दिन और सामान्यत है प्रत्येक सोमवार को पूरे 45 मिनट की हैप्पीनेस क्लास में माइंडफूलनेस के छोटे-छोटे अभ्यास करा कर बच्चों से उनके अनुभव पर चर्चा होती है. यह चर्चा काफी दिलचस्प होती है और बच्चे इसमें अपने अनुभवों को साझा करने में काफी रुचि लेते हैं.
सोमवार की पूरी 45 मिनट की क्लास में अथवा रोजाना हैप्पीनेस पीरियड के पहले 5 मिनट और अंतिम 2 मिनट बच्चों को अभ्यास कराया जाता है कि वो जब बैठे, पढ़ें, कुछ सुने, कुछ लिखें, कुछ खाएं या पिए या जो भी करें वह करते वक्त अपने काम पर ध्यान कैसे दें. शुरुआत में बच्चों को आंखें बंद कर अपने आसपास की आवाजों की ओर ध्यान देने का अभ्यास कराया जाता है, लेकिन धीरे धीरे बच्चे अपनी सांसो पर, अपने हृदय की धड़कनों पर, शरीर में हो रहे अन्य स्थानों पर ध्यान देने लगते हैं. यह अभ्यास करते हुए बच्चे खाने-पीने या चलने फिरने के दौरान अपने शरीर में हो रही प्रक्रिया और प्रतिक्रिया की ओर भी ध्यान देने लगते हैं. थोड़ा आगे बढ़कर बच्चे अपने मन में चल रहे विचारों का अध्ययन भी करने लग जाते हैं. बच्चे बहुत पछता के साथ देख पाते हैं कि हमारे मन में चल रहे विचार या तो भूतकाल की पीड़ा से संबंधित है, या वर्तमान के संघर्ष से या फिर भविष्य की चिंता से. बच्चों को अभ्यास कराया जाता है कि वह किसी भी आवाज या शरीर के किसी प्रक्रिया प्रतिक्रिया या फिर विचार के प्रति आग्रह या दुराग्रह ना रखें बल्कि सिर्फ उन पर ध्यान दें कि वह किस तरह आते हैं और किस तरह अपने आप ही चले जाते हैं. धीरे धीरे बच्चों को अभ्यास हो जाता है और वह आसपास की आवाजों, अपने शरीर की क्रिया प्रतिक्रिया, और मन में आने जाने वाले विचारों से विचलित हुए बिना अपना पूरा ध्यान अपने उस काम पर देने लगते हैं जो वह उस समय कर रहे होते हैं. किसी से बात करते वक्त या किसी की बात सुनते वक्त उनका ध्यान इधर-उधर नहीं भटकता। पढ़ते लिखते वक्त भी उनका ध्यान फिर इधर-उधर नहीं भटकता। इसी का नतीजा है कि वह क्लास में पढ़ाई के दौरान भी अपना पूरा ध्यान अध्यापक की बात सुनने में क्लास में हो रही चर्चा में बनाए रख पाते हैं. एक तरह से वर्तमान में जीने लगते हैं. वर्तमान में ना जीना ही हमारी परेशानियों का और हमारी असफलताओं का एक बड़ा कारण है.
माइंडफुल मेडिटेशन में ध्यान करने का अभ्यास नहीं बल्कि ध्यान देने का अभ्यास सिखाया जाता है. ध्यान करने का मतलब होता है - किसी मंत्र, किसी देवी देवता, किसी स्थान या अन्य किसी परिस्थिति को स्मरण में लाना और फिर कोशिश करके उसे अपने स्मरण में बनाए रखना। उसे ध्यान करना कहा जाता है. लेकिन विशुद्ध भारतीय ज्ञान परंपरा में ध्यान करने के अभ्यास से ज्यादा ध्यान देने के अभ्यास को महत्व दिया गया है. ध्यान देने के अभ्यास से बच्चों में अपने शरीर मैं होने वाली प्रक्रियाओं के प्रतिक्रियाओं तथा मन में उठ रहे भावों के प्रति सजग रहने की चेतना बढ़ती है. यह प्रक्रिया प्रतिक्रियाएं और भावों के आवेश ही समय-समय पर भटकाव पैदा करते हैं. माइंडफुल मेडिटेशन से बच्चा अपने अंदर विभिन्न परिस्थितियों में अपने मन और अपने शरीर में होने वाली प्रक्रिया और प्रक्रियाओं को देखने, जानने और समझने की योग्यता हासिल कर लेता है. ध्यान देने की क्रिया के अभ्यास से बच्चों के अंदर अपने काम के प्रति जुड़ाव पैदा होता है और इसके फलस्वरूप वह अपने खुद के कार्य और व्यवहार पर ध्यान देने से लेकर क्लासरूम के और अपने परिवार के साथ संबंधों के प्रति भी सजग बने रहते हैं.
माइंडफुल मेडिटेशन प्राचीन भारत की ऐसी ध्यान परंपरा है जो वर्तमान धार्मिक- आध्यात्मिक मान्यताओं और परंपराओं से कहीं गहरी है और सारी दुनिया के देशों में, विशेषकर पश्चिम के देशों में मेडिटेशन के लिए इसे बड़े पैमाने पर अपनाया जा रहा है. कहना गलत न होगा कि पश्चिम के देशों में भारत की जिस प्राचीन ज्ञान परंपरा का लोहा माना जाता है उसका आधार माइंडफुल मेडिटेशन ही है. आज दुनिया में बहुत सारे देश अपने स्कूलों में भारत में हुए इस अनुसंधान का प्रयोग कर रहे हैं और इसके जरिए अपने बच्चों के अंदर पढ़ाई में ध्यान लगाने, विषयों को गहराई से समझने अधिक योग्यता विकसित करने में कामयाब हुए हैं. यही वजह है कि माइंडफूलनेस मेडिटेशन पश्चिमी देशों के बहुत से स्कूलों में पाठ्यक्रम का लोकप्रिय और अनिवार्य हिस्सा बन चुका है. दिल्ली के सरकारी स्कूल में हैप्पीनेस करिकुलम जुलाई 2018 से ही लागू किया गया था और केवल 3 से 4 महीने के अंदर ही इसके परिणाम बेहद सकारात्मक नजर आने लगे थे. मैंने बहुत से स्कूलों में जाकर बच्चों से, सीख प्रिंसिपल से हैप्पीनेस करिकुलम के अनुभव के बारे में जब पूछा तो सबने माइंडफुल मेडिटेशन को बहुत पसंदीदा बताया। कई बार मैंने जानबूझकर यह जताने की कोशिश की कि अगर छात्र और शिक्षक चाहे तो हैप्पीनेस करिकुलम के अनावश्यक बोझ को बंद किया जा सकता है. लेकिन हर बार सभी ने मुझे यही कहा कि रोजाना माइंडफुल मेडिटेशन की वजह से बच्चों के अंदर आश्चर्यजनक बदलाव आ रहे हैं. बच्चों ने खुद मुझे बताया कि उनका मन अब शांत रहने लगा है और वे इधर उधर के विचारों में भटकने की जगह आप पढ़ाई पर ज्यादा ठीक से ध्यान देने लगे हैं. यहां तक कि उनका गुस्सा या चिड़चिड़ापन हुआ है. इस कार्यक्रम के लागू होने के शुरू के दो चार महीनों अंदर ही बच्चे तो बच्चे लगभग हर स्कूल में अध्यापक और प्रधानाध्यापक के पास भी बताने के लिए कई ऐसे उदाहरण थे जो प्रमाण थे की और विशेषकर माइंडफुल मेडिटेशन उनके लिए कितना उपयोगी साबित हुआ है.
प्रेरक कहानियां:-
प्रेरक कहानियां हैप्पीनेस क्लास का दूसरा अभिन्न अंग है। हैप्पीनेस कार्यक्रम में शामिल कहानियों पर कुछ कहने से पहले मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि यह नैतिकता सिखाने वाली कहानियां नहीं है। यह कहानियां बिल्कुल नहीं सिखाती कि हमें सच बोलना चाहिए यह हमें दूसरों से अच्छा व्यवहार करना चाहिए या फिर क्या सही है और क्या गलत है. यह कहानियां बच्चे के सामने कोई आदर्श या मानक पैमाना नहीं रखती है. यह बेहद छोटी छोटी सी ऐसी कहानियां हैं जो किसी विशेष परिस्थिति में, सामान्य आदमी की मनोदशा की ओर इशारा करती है और इन कहानियों को आधार बनाकर, सिर्फ उदाहरण बनाकर, हैप्पीनेस क्लास में बच्चों की मदद की जाती है कि वह किस तरह विभिन्न परिस्थितियों में अपनी मनोदशा पर ध्यान दे सकते हैं.
मांइडफुलनेस मेडिटेशन के जरिए अपने आस-पास के वातावरण और अपने अंदर के वातावरण पर ध्यान दे रहे बच्चे अपने ही अंदर उठने वाले विचारों और प्रतिक्रिया पर कैसे ध्यान दें और उनमें सही और गलत का आकलन कैसे करे इसके लिए बेहद संजीदगी से इन कहानियां को चुना गया है। इन कहानियों को पाठ्यक्रम में शामिल करने का मकसद कहानियां पढ़ाना नहीं है बल्कि बच्चों को अपने मनोभावों को बढ़ने में मदद के लिए उदाहरण के रूप में शामिल किया गया है। कहानियां तो सिर्फ बहाना है। वस्तुत: मूल मकसद तो बच्चों से इस बात का अभ्यास कराना है कि वे खुद किसी मन: स्थिति में रहते हैं। इसलिए कहानी महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण कहानी के बाद होने वाली चर्चा है। कहानी सुनाने का काम तो 4-6 मिनट में हो जाता है लेकिन इस पर चर्चा अगले कई दिन चलती है। कहानियों में वर्णित परिस्थितियों से मिलती- जुलती झुलती परिस्थितियां बच्चे अपने स्वयं के जीवन से उठाकर लाते हैं या अपने आसपास के वातावरण से और उन पर चर्चा करते हैं। जैसे कि- एक कहानी ‘‘ तीन मजदूर तीन नजरिया ’.’ इसमें एक व्यक्ति निर्माण कार्य में लगे मजदूरों से बात करता है और सामान्य सवाल करता है कि वे क्या कर रहे हैं। इस सवाल के जवाब में पहला मजदूर कहता है कि वह पत्थर तोड़ रहा है। दूसरा मजदूर कहता है कि रोजी-रोटी कमाने के लिए पत्थर तोड़ रहा है और तीसरा मजदूर कहता है कि वे स्कूल बनाने के लिए काम कर रहा है। स्कूल बनेगा तो उसमें बच्चे पढ़ेंगे। एक ही जगह पर, एक ही सैलरी पर और एक ही जैसा काम कर रहे 3 मजदूरों के 3 जवाब वस्तुत: किसी भी काम को करते हुए हमारी अपने 3 मन: स्थितियां हैं। हम सभी जब भी कुछ काम करते हैं तो इसमें से किसी न किसी मन: स्थिति में रहते हैं। कहानी तो बहुत छोटी सी है और यहीं खत्म हो जाती है और तीसरे मजदूर के जवाब पर ही खत्म हो जाती है लेकिन यही से बच्चों के साथ चर्चा शुरू होती है और वे अपनी रोजाना की जिंदगी से उदाहरण उठाकर लाते हैं ओर समझने की कोशिश करते हैं। किसी काम को करते वक्त वे किस मन: स्थिति में थे। यहां बच्चों को हम कोई आदर्शवादी बात नहीं कहते। न ही हम उन्हें यह समझाने की कोशिश करते हैं कि कौन सी मन: स्थिति सही है और कौन सी गलत। बल्कि बहुत सकारात्मक तरीके से उन्हें यह समझाने में मदद करते हैं कि अलग-अलग कामों को करते वकत हम सब किस तरह अलग-अलग मन: स्थिति में होते हैं। एक बार जब बच्चा अपनी ही मन: स्थिति पर खुद ध्यान देने लग जाता है तो वह कठिन से कठिन कार्य को कर लेता है, वह दुखी नहीं होता है और यदि कष्ट उठाकर भी कोई काम कर रहा है उसके बड़े योगदान को ध्यान में रखेगा। ये कहानी तो छोटी सी है और 5 मिनट में पढ़कर सुना दी जाती है लेकिन इसके उदाहरण पर चर्चा कई दिन तक चलती है और तब तक चलती है जब तक स्कूल में हर बच्चा अपने स्वयं से जोड़कर अपनी मन: स्थिति के बारे में खुद का कोई उदाहरण न दे दें।
इसी तरह ‘‘भाई बोझ नहीं’’ के नाम से एक कहानी है। जिसमें एक छोटी बच्ची अपने छोटे भाई को कंधे पर बिठा कर पहाड़ चढ़ रही है। बच्ची की मेहनत देखकर कोई संवेदनशील व्यक्ति उसे कहता है कि बोझ से थक गई होगी, तुम्हारे भाई को थोड़ी देर मैं गोद में लेकर ऊपर चढ़ा देता हूं। बच्ची जवाब देता है कि यह मेरा भाई है बोझ नहीं है। मैं इसे लेकर भले ही थक गई हूं लेकिन मैं इसे बोझ नहीं मानती हूं। यह कहानी भी परिवार के रिश्तों एवं संबंधों के प्रति हमारी अलग-अलग समय पर मन: स्थिति का एक उदाहरण है। आज के समाज में बहुत से बच्चे बड़े होकर अपने माता-पिता को बोझ मानने लगते हैं। सिर्फ माता-पिता नहीं समय-समय पर बहुत सारे रिश्ते जिसमें हमें कुछ कष्ट उठाकर या थोड़ी असुविधा झेलकर किसी की मदद करनी पड़े वैसे रिश्तों में अक्सर खींचतान नजर आती है। वे खींचतान इसी बात का प्रतीक है कि कहीं न कहीं हम अपने रिश्तों को बोझ मानने लगते हैं। लेकिन अगर बच्चे बचपन में ही इसी मन: स्थिति को समझ लें कि रिश्ते और सम्बन्ध बोझ नहीं होते तो वह उसको आत्मिक रूप से और मजबूत बनायेगा खासतौर से इन परिस्थितियों में जब रिश्तों को बोझ मानते हुए भी बहुत से लोग उन्हें मजबूरी में या लोकलाज से निभाते चलते हैं।
इसी तरह ‘‘बड़ा आदमी’’ एक कहानी है। जिसमें एक बच्चा अपने पिता से एक बहुत महंगे गिफ्ट की अपेक्षा रखता है। आर्थिक परिस्थितिवश जब उसे यह गिफ्ट नहीं मिल पाता तो वह अपने पिता के प्रति नकारात्मक भाव से भर जाता है। यहां तक की अपने पिता का पर्स चुराकर घर छोड़कर निकल जाता है। लेकिन जब इस पर्स में रखे अपने पिता के काग़जों को देखता है तो समझ जाता है कि उसके पिता कितनी विपरीत परिस्थिति में और कितनी आर्थिक तंगी में परिवार का पालन कर रहे हैं। उसे अपनी गलती का अहसास होता है। यह कहानी हमारे और हमारे आस-पास के परिवारों में चल रहे घटनाक्रम का सामान्य उदाहरण है। लेकिन जब बच्चे एक सप्ताह इस मन: स्थिति पर चर्चा करते हैं तो कहीं न कहीं जाने अनजाने वे अपने उन प्रक्रियाओं की ओर भी झांकते हैं जो वे अपने माता-पिता अथवा अपनी बात न माने जाने की स्थिति में करते रहे हैं। वे अपने और अपने माता-पिता के सम्बन्धों के बारे में विश्लेषण कर पाते हैं।
गतिविधियां :-
कहानियों की तरह ही बहुत सारी गतिविधियां भी हैप्पीनेस क्लास में शामिल की गई हैं और इनका भी मकसद यही है कि बच्चा अपने व्यवहार और अपनी सोच का निरीक्षण कर सके, उसका प्रशिक्षण कर सके, उसका मूल्यांकन कर सके। यहां भी कोई गतिविधि आदर्शवादिता या उनके मूल्य के प्रयोजन रूप में नहीं की जाती बल्कि हर एक गतिविधि का मकसद यही है कि बच्चा अंतरोन्मुख होकर अपने अंदर झांके और विभिन्न परिस्थितियों में अपनी प्रक्रिया तथा विचारों को देखे, समझे। बच्चा विभिन्न परिस्थितियों में अपने मन के अंदर उठने वाले भावों और प्रतिक्रियाओं को समझकर ही उन जैसी परिस्थितियों में अन्य लोगों के कार्य एवं व्यवहार के प्रति अपनी कोई राय बनाये, उनके बारे में कोई निर्णय लें। नर्सरी से लेकर आठवीं क्लास तक की गतिविधियों को बच्चों की उम्र के अनुसार तैयार किया गया है. आठवीं क्लास के एक महत्वपूर्ण गतिविधि है - अपनी आवश्यकताओं को समझना. इसके तहत बच्चों को यह जानने में मदद की जाती है कि ‘आवश्यकताएं असीम है साधन सीमित है’ का प्रचलित सिद्धांत उनके अपने अनुभव में कितना सही है और कितना भ्रम है. एक गतिविधि के बाद बच्चे बहुत आसानी से इस ओर ध्यान देने लगते हैं कि उनकी आवश्यकता है तो तरह की हैं - भौतिक आवश्यकताएं और मानसिक यानी भावनात्मक आवश्यकताएं। भौतिक आवश्यकताएं हैं जैसे- रोटी, कपड़ा, मकान, मोबाइल, गाड़ी आदि आदि. इसी तरह मानसिक यानी भावनात्मक आवश्यकताएं हैं जैसे- प्यार, सम्मान, सुरक्षा, खुशी इत्यादि. इस गतिविधि के तहत बच्चा सबसे पहले अपनी आवश्यकता की सूची बनाना सीखना है, फिर उनका भौतिक अथवा मानसिक आवश्यकता में वर्गीकरण करना सीखता है. गतिविधि के दौरान यह भी सीखता है कि भौतिक आवश्यकताएं मेहनत से, कार्य करने से पूरे होती है. जबकि भावनात्मक आवश्यकताएं परस्पर व्यवहार करने से पूरा होती है. सबसे महत्वपूर्ण बात, कई दिन तक चलने वाली इस पूरी गतिविधि का मकसद है कि बच्चा यह समझ सके कि उसकी भौतिक आवश्यकता है निश्चित है और उन्हें पूरा किया जा सकता है, तथा भावनात्मक आवश्यकताएं भी निश्चित है और उन्हें भी पूरा किया जा सकता है. लेकिन जब हम सामान से भावनात्मक आवश्यकताओं को पूरा करने की कोशिश करते हैं तो उलझ जाते हैं और ऐसा लगने लगता है कि असीमित सामान होने पर भी हमारी आवश्यकता है पूरी नहीं होती यहीं से हम भी पैदा होता है कि आवश्यकताएं असीमित है और साधन सीमित है.
इसी क्रम में एक और गतिविधि है बच्चों के अंदर यह स्पष्ट का पैदा करना कि वह जब कुछ चाहते हैं, या तो उसमें उपयोगिता के लिए कितना खरीदते हैं और दिखावे के लिए खरीदने की इच्छा कितना होती है. एक और महत्वपूर्ण गतिविधि है -विश्वास. इसमें बच्चों के अपने प्रति विश्वास और दूसरों के प्रति तुलनात्मक विश्वास पर चर्चा होती है और यह जानने में मदद की जाती है कि किस तरह अपने प्रति विश्वास निरंतरता लिए हुए होता है जबकि दूसरों के प्रति विश्वास या बाहरी चीजों से मिला विश्वास स्थाई होता है और अक्सर तुलनात्मक थी. छोटे बच्चों में स्कूल के सफाई कर्मचारी और केट की पर से लेकर घर में माता पिता और समाज में सब्जी वाले, फेरीवाले इत्यादि सभी के प्रति धन्यवाद का भाव जागृत करने के लिए कई तरह के गतिविधियां कराई जाती हैं.
इस तरह माइंडफुलनेस, मेडिटेशन, कहानियां और गतिविधियां बेहद वैज्ञानिक तरीके से इस पाठ्यक्रम में शामिल की गई है। तीनों का एक ही मकसद है कि बच्चा अपने अंदर झांकना सीखे, अपने व्यवहार और अपने विचार अपनी प्रतिक्रिया का खुद निरीक्षण करते रहते हैं जैसा मैंने शुरू में कहा यह विशुद्ध वैज्ञानिक पाठ्यक्रम है और इसमें कोशिश यह है कि नर्सरी से लेकर आठवीं क्लास तक बच्चा अपने अंदर झांकने के अभ्यास में रहे और परत-दर-परत अपने विचारों को, अपने द्वंद को समझते हुए उलझनों से मुक्त और दृढ़ निश्चय व्यक्तित्व के रूप में विकसित हो सके।
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